'हंस' दिसंबर 2010 के अंक में भारत दोसी ने अपने पत्र में स्वयं को हिन्दी सेवी बताया है, जबकि असलियत यह है कि वे हिन्दी सेवी नहीं, राजस्थानी विरोधी हैं और पता नहीं हंस किस मकसद से उनकी बेसिर-पैर की बातों को तवज्जो दे रहा है। महज सस्ती लोकप्रियता के लिए ये श्रीमान ऊटपटांग बक रहे हैं और हंस उसे छाप रहा है, यह देख-पढ़कर हैरानी होती है। वे जिस तर्ज पर राजस्थानी का विरोध कर रहे हैं और कह रहे हैं कि राजस्थानी कोई भाषा नहीं, क्या उसी तर्ज पर गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि भाषाओं का विरोध कर सकते हैं? उनका कहना है कि उन्हें टपका देने की धमकी मिली है। मैं तो कहता हूं कि ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर ऐसी बेहूदा बात करने पर गनीमत है कि धमकी ही मिली है। दुनियाभर के भाषाविद् जिस भाषा के कशीदे पढ़ते हैं और जिसे विश्व की समृद्धतम भाषाओं में गिनते हैं, उस भाषा के बारे में अशोभनीय टिप्पणियां बर्दाश्त से बाहर की बात है। कोई भी इंसान अपनी मातृभाषा का अपमान सहन नहीं करेगा। मैं स्वयं हिन्दी का व्याख्याता हूं और सच्चे मायने में हिन्दी सेवी हूं मगर अपनी मां-भाषा राजस्थानी के सम्मान की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकता हूं। मेरी तरह और भी बहुत लोग हैं। आप क्यों भूल रहे हैं कि स्वयं नामवर सिंह जी ने जोधपुर विश्वविद्यालय में राजस्थानी का पुरजोर समर्थन करते हुए स्वतंत्र रूप से राजस्थानी विभाग की स्थापना करवाई थी। एक बड़ा राजस्थानी वर्ग हंस का पाठक है और हंस को अपना मानता है। ऐसी बातें छपने से उनकी भावनाएं आहत होती हैं। अत: हंस को इस मामले में सावचेती बरतनी चाहिए।
-डॉ. सत्यनारायण सोनी, परलीका (हनुमानगढ़-राजस्थान) 335504
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